देशद्रोह या राजद्रोह को अपराध बनाने वाली आईपीसी की धारा 124A की संवैधानिक वैधता को सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई जारी है। न्यायालय में अब तक सरकार इस कानून का बचाव करती नजर आ रही थी, लेकिन अब हाल ही में इसने अपने रुख में बदलाव किया है और हलफनामा दायर करके कहा है कि वह इस कानून पर विचार करने को तैयार है। इसी बीच सर्वोच्च न्यायालय ने देशद्रोह कानून पर अंतरिम रोक लगा दिया है और कहा कि जब तक केंद्र सरकार इस कानून पर अंतिम रूप से विचार नहीं कर लेती तब तक इस कानून के तहत कोई नया मुकदमा दर्ज नहीं किया जाएगा।
अदालत की अवमानना या न्यायिक अवमानना …
सबसे पहला सवाल कि इस कानून का इतिहास क्या है? दरअसल सबसे पहले ये कानून इंग्लैंड में आया था। 17वीं सदी में जब इंग्लैंड में वहां की सरकार और साम्राज्य के खिलाफ आवाजें उठने लगीं तो अपनी सत्ता बचाने के लिए राजद्रोह का कानून लाया गया। वहीँ से ये कानून भारत में आया। भारत में देशद्रोह क़ानून के शुरुआत की जड़ें 19वीं शताब्दी के वहाबी आंदोलन से जुड़ी हुई हैं। वहाबी आंदोलन एक इस्लामी पुनरुत्थानवादी आंदोलन था जिसे सैयद अहमद बरेलवी ने शुरू किया था। हालांकि, उस समय ये क़ानून स्पष्ट रूप में नहीं लाया गया था। साल 1859 तक देशद्रोह पर कोई भी डायरेक्ट कानून नहीं था। बाद में 1860 में इस देशद्रोह क़ानून को बनाया गया और फिर 1870 में इसे आईपीसी में शामिल कर दिया गया।
आज़ादी के लड़ाई में असहयोग आंदोलन के दौरान 18 मार्च, 1922 को महात्मा गांधी को इसी क़ानून के तहत गिरफ्तार किया गया था। उस समय गाँधीजी ने इसके बारे में कहा था, “मैं धारा 124A के तहत बड़ी ख़ुशी से आरोपित किया गया हूँ। ये क़ानून नागरिकों की स्वतंत्रता को दबाने के लिए बनाये गए IPC की शायद सबसे अहम धारा है।” सच्चाई यह थी कि इस क़ानून को अंग्रेजी सरकार द्वारा इसलिए बनाया गया था, ताकि वे भारतीयों पर और प्रभावी ढंग से शासन कर सके और भारतीयों द्वारा इस शोषण के खिलाफ आवाज़ बुलंद करने के सारे रास्तों को बंद किया जा सके। 1890 के दशक में इसकी भाषा को और सख्त बनाया गया, क्योंकि तत्कालीन ब्रिटिश अटॉर्नी जनरल का मानना था कि ब्रिटिश नागरिकों और भारतीयों को एक समान कानून नहीं दिया जाना चाहिए।
मौजूदा वक़्त में जब कोई आदमी, यदि देश के खिलाफ लिखकर, बोलकर, संकेत देकर या फिर अभिव्यक्ति के जरिये विद्रोह करता है या फिर नफरत फैलाता है या इस तरह की कोई कोशिश भी करता है, तब ऐसे मामलों में, आईपीसी की धारा-124 A के तहत केस बनता है। अगर व्यक्ति इस कानून के तहत दोषी पाया जाता है तो उसे अधिकतम उम्रकैद की सजा हो सकती है। देशद्रोह एक गैर-जमानती अपराध है। इस कानून के तहत दोषी को कभी सरकारी नौकरी नहीं मिल सकती है।
ऊपर आपने देशद्रोह कानून की जो परिभाषा सुनी उससे आपको ऐसा लगता होगा कि इसमें कुछ भी बुरा नहीं है तो आखिर इसके दुरुपयोग के संभावनाएं क्यों रहती हैं? दरअसल धारा-124A में जिन लफ़्ज़ों का इस्तेमाल किया गया है, उनकी स्पष्टता को लेकर ही सवाल उठते रहे हैं। अब स्पष्टता न होने के कारण इस क़ानून के दुरुपयोग की संभावनाएं भी बढ़ जाती हैं। चूँकि क़ानून व्यवस्था राज्य सूची का विषय है, ऐसे में राज्य स्तर पर इसके बेज़ा इस्तेमाल के मामले ज़्यादा देखने में आते हैं। अपने इसी दुरुपयोग के कारण ही यह कानून अक्सर चर्चा में रहता है। विरोध करने के पीछे एक कारण ये भी है कि इस केस में गिरफ्तारियां तो बहुत होती हैं, लेकिन दोषी बहुत कम ही साबित हो पाते हैं।
इस कानून को लेकर न्यायपालिका ने भी कई मामलों में टिप्पणी की है। साल 1962 में केदारनाथ बनाम बिहार राज्य के केस में सुप्रीम कोर्ट ने इस क़ानून की व्याख्या की थी। देश के सर्वोच्च न्यायालय ने ऐतिहासिक फैसला देते हुए देशद्रोह मामले में फेडरल कोर्ट ऑफ (ब्रिटिश) इंडिया से सहमति जताई थी। सुप्रीम कोर्ट ने धारा-124A के दायरे को सीमित करते हुए कहा था कि वैसा एक्ट जिसमें अव्यवस्था फैलाने या फिर कानून व व्यवस्था में गड़बड़ी पैदा करने या फिर हिंसा को बढ़ावा देने की प्रवृत्ति या फिर मंशा हो तभी देशद्रोह का मामला दर्ज हो सकता है। साथ में ये भी कहा कि सरकार की आलोचना या फिर प्रशासन पर टिप्पणी भर से देशद्रोह का मुकदमा नहीं बनता। यहां आपको एक बात जानना बहुत जरूरी है कि अक्सर ‘राजद्रोह’ और ‘देशद्रोह’ को एक ही मान लिया जाता है, लेकिन जब सरकार की मानहानि या अवमानना होती है तो उसे ‘राजद्रोह’ कहा जाता है और जब देश की मानहानि या अवमानना होती है तो उसे ‘देशद्रोह’ कहा जाता है। अंग्रेजी में इसे Sedition कहते हैं। भारत में दोनों ही मामलों में धारा 124A का ही इस्तेमाल होता है।
इस सम्बन्ध में विधि आयोग ने भी ‘देशद्रोह’ विषय पर अपनी रिपोर्ट में कहा कि देश या इसके किसी पहलू की आलोचना को देशद्रोह नहीं माना जा सकता। यह आरोप उन मामलों में ही लगाया जा सकता है जहां इरादा हिंसा और अवैध तरीकों से सरकार को अपदस्थ करने का हो। आयोग ने बताया कि IPC में इस धारा को जोड़ने वाले ब्रिटेन ने अपने खुद के देश में 13 साल पहले ही इन प्रावधानों को हटा दिया है।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो यानी NCRB के मुताबिक, 2014 से लेकर 2020 तक राजद्रोह के 399 मामले दर्ज किए गए हैं। इन मामलों में 603 लोगों को गिरफ्तार किया गया है, जबकि, महज 13 लोगों पर ही दोष साबित हो सका है। इस सम्बन्ध में हालिया मामला दिवंगत पत्रकार विनोद दुआ का काफी चर्चित रहा, क्योंकि उन्हें भी कोर्ट ने बरी कर दिया था। जानकार मानते हैं कि जब ज्यादातर लोग छूट जा रहे हैं तो इसका मतलब है कि मुकदमे गलत दायर हो रहे हैं। लिहाज़ा इसमें बदलाव और स्पष्टीकरण की मांग भी उठने लगी है। विशेषज्ञों के मुताबिक, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत उपलब्ध अभिव्यक्ति के अधिकार और देशद्रोह क़ानून के बीच एक स्पष्ट रेखा खींचे जाने की ज़रूरत है।
हमारे देश में क़ानून बनाने, उसमे बदलाव करने या फिर उसे समाप्त कर देने का अधिकार विधायिका के पास है। ऐसे में, देशद्रोह क़ानून के दुरुपयोग को रोकने के लिए भी विधायिका ही सबसे महत्वपूर्ण कड़ी साबित होगी। ऐसे में सरकार के तरफ से इस कानून पर पुनर्विचार करने की बात से उम्मीद है कि देश की एकता, अखंडता और नागरिकों के अधिकार को प्रभावित किए बिना कुछ सकारात्मक परिणाम सामने आ सकता है।
